लोकसभा 2019 भाग -3
लोकसभा 2019 भाग -3
भाजपा की जीत का विश्लेषण करने से पहले कुछ मुख्य आंकड़ों पर नजर डाल लेते है (ये आंकड़े भारत निर्वाचन आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध है ) | भाजपा ने इन चुनावो में 37. 38 मत प्रतिशत के साथ 303 सीटे हासिल की जबकि 2014 में उसके पास 31 प्रतिशत मतों के साथ 282 सीटे थी | एनडीए के पास 2014 में 38. 5 मत प्रतिशत के साथ कुल 336 सीटे थी जो 2019 में 353 पहुँच गयी | दूसरी और कांग्रेस के पास 2014 में 19. 31 मत प्रतिशत के साथ 44 सीटे थी जबकि 2019 में 19. 55 % मतों के साथ उसकी सीटे 52 हुयी और एनडीए ने 2014 के 23 %मत के साथ 60 सीटों से बढ़ाकर अपनी सीटे 92 की | राज्यों के अनुसार देखे तो बेशक कुछ राज्यों में भाजपा की सीटे मामूली कम हुयी है लेकिन ये गठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर नजर आता है अन्यथा कम सीटे प्राप्त करने के बावजूद भाजपा ने अपना मत प्रतिशत बढ़ाया है | जम्मू कश्मीर की बात करे तो भाजपा अपनी तीनो सीटे बचा पाने के साथ 2014 के मुकाबले अपना मत प्रतिशत 34. 40 से बढाकर 46. 39 कर पाने में सफल रही ,उत्तर प्रदेश में उसकी संख्या 71 से कम होकर 62 रही लेकिन मत प्रतिशत 42. 63 के मुकाबले में 49. 60 हुआ | बंगाल में भाजपा ने 2014 की अपनी 2 सीटों और 18 % मतों को बढाकर 18 सीटे 40. 25 %मतों से की ,इसी तरह उड़ीसा में उसने अपनी सीटे 1 से बढाकर 8 की | दक्षिण में कर्णाटक में 2014 में भाजपा के पास 43 % मतों के साथ 17 सीटे थी जो 2019 में 51. 38 मत प्रतिशत के साथ 25 हो गयी | उल्लेखनीय ये भी है कि 12 राज्यों में भाजपा ने 50 % से अधिक मत प्राप्त किये वही तेलंगाना में भी 4 सीट प्राप्त करने में सफल रही | कांग्रेस की बात करे तो उसने अपने मत प्रतिशत में मामूली वृद्धि की और 8 सीटों की बढ़ोतरी की | कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन केरल में रहा जहाँ उसने 2014 में 31. 10 प्रतिशत से प्राप्त 8 सीटो को बढाकर 15 किया और पंजाब में रहा जहा 33. 10 पर्तिशत मतों के साथ 3 सीटों को 2019 में बढाकर 8 किया ,साथ ही तमिलनाडु में भी 8 सीटे प्राप्त करने में सफल रही | आंध्र में 2014 में एनडीए का हिस्सा रही तेलगुदेशम 15 सीटों के मुकाबले केवल 3 सीट प्राप्त कर पायी यहाँ वाईएसआर ने 49. 15 प्रतिशत मतों के साथ अपनी सीटे 3 से बढाकर 22 की ,तमिलनाडु में 2014 में 37 सीटे प्राप्त करने वाली एआईएडीएमके पर डीएमके ने बाजी मारी और शून्य से सीधे 23 सीटों पर पहुँच गयी | तेलंगाना में विधानसभा में काबिज होने में सफल रही टीआरएस पिछले चुनावो की 11 सीटों में से 9 को बचा पाने में सफल रही | क्या कहते है ये परिणाम थोड़ी चर्चा इस पर भी कर लेते है | मेरी राय में सीटे सरकार बनाने के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है लेकिन किसी पार्टी की जनमानस में पैठ का पता उसके मत प्रतिशत से ही लगाया जाना चाहिए ,और मत प्रतिशत ये बताता है कि एक और जहाँ कांग्रेस ने अपने जनाधार में मामूली वृद्धि की है वही भाजपा का जनाधार अच्छे खासे मार्जिन से बढ़ा है | तो नुकसान किसे हुआ ?? मुख्यत कम्युनिस्ट पार्टी और कुछ क्षेत्रीय दलों को जिन्होंने अपना मत प्रतिशत और सीटे दोनों गंवाई ,इससे इस ट्रेंड के संकेत मिलते है कि जनमत केंद्र में क्षेत्रीय दलों के स्थान पर राष्ट्रीय दल को वरीयता दे रहा है |
भाजपा की जीत को लेकर जो ट्रेंड चल रहा है या चलाया जा रहा है उसमे भाजपा के समर्थक इसे मोदी की सुनामी ,जिसमे कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष डूब गया ,भाजपा की पिछली सरकार द्वारा किये गए विकास कार्यो का परिणाम विपक्ष की नकारात्मक राजनीती को जनता द्वारा नकार दिया जाना बता रहा है तो विरोधियो की राय में ये ईवीएम और चुनाव आयोग ( वे सुप्रीम कोर्ट को भी लपेटने में नहीं चूक रहे ) के सहयोग के चलते संभव हुआ | चलिए पहले विरोधियो की राय का विश्लेषण करते है | किसी भी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस में कुछ विशेष व्यवस्था कर उसके परिणामो को प्रभावित किया जा सकता है इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन भारत में प्रयोग में लायी गयी ईवीएम मशीनों को इस प्रकार डिजाइन किया गया है कि उन्हें प्रभावित कर पाना संभव नहीं है ,इस कथन के लिए मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है ,में ये केवल चुनाव आयोग द्वारा सभी राजनैतिक दलों को दिए गए उस मोके के आधार पर कह रहा हूँ जिसमे ईवीएम को हैक करने की चुनौती दी गयी लेकिन इस चुनौती का सामना करने के लिए कोई भी राजनैतिक दल नहीं पहुंचा था, फिर वीवीपैट के प्रयोग के बाद तो ये वैसे भी संभव नहीं है ,यदि किसी को लगता था कि ईवीएम को दल विशेष के लिए सेट कर दिया गया है तो उसे चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट के सामने मिलान करने की गुहार लगाने की जरुरत कहा थी ,उसे तो अपने मतदाताओं को केवल इतना समझाना था कि वोट करने के साथ निकलने वाली पर्ची पर नजर डाल ले और यदि वोट किसी दूसरे को चला गया है तो तुरंत अपने प्रतिनिधि को जो मतदान कक्ष में मौजूद है शिकायत करे ,मतदान उसी वक्त रोक दिया जाता ,लेकिन किसी मतदाता द्वारा की गयी ऐसी कोई शिकायत तो सामने कहा आयी ,| क्या ईवीएम को बदल दिया गया था ? हां ये कटु सत्य है कि भारत में कुछ रुपयों या प्रलोभन में आकर अपना जमीर बेचने वाले लोगो की कमी नहीं है लेकिन मतदान के बाद मशीनों को जिस प्रकार त्रिस्तरीय सुरक्षा प्रदान की गयी और राजनैतिक दलों ने भी मॉनिटरिंग की तो ये बात हास्यास्पद ही कही जायेगी | लाखो की तादाद में ईवीएम गायब है ये बड़ा सच है और हालिया चुनाव में कुछ ईवीएम नियत समय के बाद भी रोड पर या कुछ अन्य स्थानों पर पायी गयी ,ये निश्चित रूप से गंभीर लापरवाही है लेकिन भारत में जिस स्तर पर चुनाव होते है उसमे कुछ मानवीय गलतियों की जिनके पीछे कोई मेलाफाइड इंटेंशन नहीं होता संभावना तो बनी ही रहती है | चुनाव आयोग से इसका जवाब अवश्य माँगा जाना चाहिए लेकिन इसके आधार पर पूरी चुनाव प्रक्रिया को ही दूषित कह देना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता | क्या चुनाव आयोग ने भाजपा को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुँचाया तो इसका जवाब हां में हे लेकिन वो केवल यही तक है कि आचार संहिता के उल्लंघन के मामलो में आयोग का रवैया मोदी और अमित शाह के प्रति बेहद नरम रहा ,जो होता रहा है सरकारी संस्थाए सत्ताधारी दल के साथ नरम रुख अपनाती है और वे सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग भी करते है लेकिन ऐसा केवल इन्ही चुनावो में ही हुआ हो ऐसा तो नहीं है ,पिछले इतिहास को भी उठाकर देखे तो नजर आ जायेगा | बल्कि चुनाव आयोग के इस रवैये ने एक तरह से ईवीएम को क्लीन चिट दी है ,यदि ईवीएम के द्वारा चुनाव जीतना तय हो ही चुका था तो चुनाव आयोग मोदी और शाह को भी नोटिस पकड़ाकर अपनी इमेज को स्वच्छ और मजबूत साबित करता न कि ये बदनामी झेलता | रहा सवाल सुप्रीम कोर्ट का तो सुप्रीम कोर्ट नीतिगत मामलो में किसी संस्था के अधिकारों पर अतिक्रमण नहीं करके उस संस्था के अधिकारों की रक्षा करता है ,प्रत्येक मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने से पहले ये देखा जाना चाहिए था कि कही ये मामला चुनाव आयोग की नीतियों से तो सम्बंधित नहीं है | आप उस समय सुप्रीम कोर्ट जा सकते थे जब आपका दिया गया वोट वीवीपैट किसी और को गया प्रदर्शित करता क्योंकि तब ये एक अपराध की श्रेणी में होता और सुप्रीम कोर्ट अपने अधिकारों का प्रयोग करता |अब समर्थको की बात करे तो इन परिणामो को मोदी सुनामी को कैसे कहा जा सकता है हां मोदी एक फेक्टर अवश्य रहा इन चुनावो में भाजपा की जीत का | क्या लोगो ने भाजपा सरकार के विकास कार्यो को समर्थन दिया तो इसका जवाब आपको भाजपा के 2014 के चुनावी घोषणा पत्र और पांच वर्षो में उनपर किये गए काम के साथ चुनाव प्रचार के दौरान उठाये गए मुद्दों से लग जायेगा | ये चुनाव काम और मुद्दों पर लड़ा ही कहा गया जो भाजपा की जीत का श्रेय उसके काम को दिया जाना चाहिए | तो क्या विपक्ष की नकारात्मक रणनीतियों से भाजपा चुनाव जीती ,चुनावो के विरोधी दल चाहे वो कोई भी रहे हो एक दसरे पर फूल नहीं बरसायेंगे बल्कि शब्दों के तीखे प्रहार ही करेंगे ,ये एक सामान्य प्रक्रिया है जो किसी चुनाव में ऐसी जीत का कारण नहीं बन सकता | तो क्या केवल राष्ट्रवाद ने भाजपा को जिता दिया ? मेरी राय में ये भाजपा की रणनीति का एक अंग रहा था जिसने अपने हिस्से का काम किया ,लेकिन यही बड़ा कारण होता तो चार में से तीन राज्यों में गैर भाजपाई सरकारे नहीं बनती और न ही कांग्रेस सहित विपक्ष का आंकड़ा 190 के आसपास पहुंचता |
तो फिर भाजपा की जीत का कारण क्या ? में वस्तुत इसे जीत से अधिक इस रूप में देखता हूँ की भाजपा अपनी सीटों को सिर्फ बचा पाने में ही सफल नहीं रही बल्कि उसने इनमे बढ़ोतरी भी की | धारा 370 ,राम मंदिर ,15 लाख ,भ्रष्टाचार ,कालाधन ,बेरोजगारी और मंहगाई जैसे कई मुद्दे थे भाजपा के 2014 के घोषणा पत्र में | क्या इनमे से किसी में भी सफलता के साथ उतरी थी भाजपा 2019 के चुनाव में ,ऊपर से नोटबंदी और जीएसटी जिनके बारे में बेशक भाजपा कुछ भी प्रचारित करे लेकिन जीडीपी का गिरना सबसे बड़ा प्रमाण है कि इनसे देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है | इसके बावजूद भी भाजपा जीती तो मेरी राय में उसके पांच कारण थे ,नरेंद्र मोदी ,अमित शाह की रणनीति ,इडियट बॉक्स (दलाल मीडिया ), कार्यकर्ता और कमजोर विपक्ष | बात रणनीति से शुरू करते है ,चुनाव पूर्व या चुनाव के दौरान राम माधव का बयान और बिहार तथा महाराष्ट्र में जेडयू और शिवसेना के साथ किया गया गठबंधन इस बात दर्शाता है कि चंद्रबाबू नायडू के एनडीए को छोड़ देने के बाद जिसका कारण सहयोगियों में इस धारणा का पनपना था कि भाजपा शायद उनका अस्तित्व ही समाप्त कर दे ,अमित शाह को ये लगने लगा था कि यदि गठबंधन को लेकर अधिक सख्त रुख अपनाया गया तो संभव है चुनावो में इसका खामियाजा उठाना पड़ सकता है और यही कारण रहा कि 2014 में केवल 2 सीटे जीतने वाली जेडयू के साथ बराबरी का समझौता हुआ और महाराष्ट्र में तमाम मतभेदों के बावजूद शिवसेना को बराबरी के साथ ही साथ में लाया गया | प्रत्याशियों के चयन में भी अमित शाह की रणनीति ने ही मुख्य रोल निभाया जिसका उदाहरण प्रज्ञा ठाकुर जिसके जरिये हिन्दू आतंकवाद के मुद्दे पर कांग्रेस को घेरा गया इसके अतिरिक्त चाहे फ़िल्मी सितारे रहे हो या खेलो से जुड़े प्रत्याशी रहे हो जिन्हे सक्रिय राजनीती का कोई अनुभव नहीं था लेकिन जिन्हे राष्ट्रवाद के प्रतीक के तोर पर लोगो के सामने पेश किया जा सकता था पर दाव खेला गया जो बेहद सफल रहा | मोदी की बयोपिक पर बनी फिल्म की रिलीज हो ,एयर स्ट्राइक हो या मसूद अजहर को ग्लोबल टेरेरिस्ट घोषित किये जाने का मामला या इसके जैसे अन्य मामले रहे हो इन सभी को मोदी है तो मुमकिन है के हैशटैग के साथ सशक्त तरीके से प्रचारित किया जाना और इन पर विरोधियो द्वारा व्यक्त की जाने वाली किसी भी प्रतिक्रिया को देश और सेना के अपमान से जोड़ते हुए उन्हें पाकिस्तान के साथ खड़ा कर देना इसी रणनीति का हिस्सा रहा | मीडिया की ताकत का अंदाजा भाजपा 2014 में ही लगा चुकी थी जब सोशल मीडिया ने उनके पक्ष में जबरदस्त परिणाम दिया था ,फिर 2019 में तो उनके पास इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ताकत थी जो सत्ता में होने के कारण उन्हें सहज ही उपलब्ध हो गयी | मीडिया को मैनेज किया गया और बहुत बेहतर तरीके से मैनेज किया गया जिसके चलते 1984 तो आया लेकिन 2002 का जिक्र ही नहीं हुआ ,एयर स्ट्राइक का बखान हुआ लेकिन पठानकोट का जिक्र नहीं हुआ , राफेल सामने आया तो उसके लिए बोफोर्स को बहार निकाल लिया गया ,और जब मोदी को टारगेट किया गया तो राजीव गांधी पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया गया ,आमजन से जुड़े तमाम वास्तविक मुद्दे लोगो की नजर से गायब रहे और केवल वो ही परोसा गया जो भाजपा के अनुकूल था | मीडिया चेनलो ने समाचारो के लिए केवल चंद मिनिट रखे और बाकी समय अर्थहीन मुद्दों पर बहस के लिए रखा ,चोराहो और नुक्कड़ सभाओ के नाम पर किये गए इनके कार्यक्रमों ने भाजपा के पक्ष में जमकर प्रचार किया ,इन कार्यक्रमों यदि विपक्षी दलों के किसी प्रवक्ता ने भाजपा के विरुद्ध कोई मुद्दा उठाने का प्रयास किया तो उस मुद्दे को एंकर द्वारा उसी के विरुद्ध खड़ा कर दिया | भारतीय जनमानस उन बातो पर सहजता से यकीन कर लेता है जो मीडिया द्वारा परोसी जाती है और मेरी राय में अमित शाह की रणनीतियों( में यहाँ अच्छी या बुरी का जिक्र नहीं करूँगा क्योंकि जीतने के लिए तमाम दांव खेले जाते है ) को मतदाताओं तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | चलिए बात नरेंद्र मोदी की करते है तो आपको स्मरण होगा कि 2014 से ही मोदी की इमेज एक देवीय शक्ति युक्त व्यक्ति के रूप में बनाना शुरू कर दिया गया था जिसका अवतरण ही भारत के उद्धार के लिए हुआ था ,और मोदी की एक बड़ी खूबी को तो किसी भी कीमत पर नहीं नकारा जा सकता वो है निर्णय लेने और उसे लागू करने की क्षमता जो बहुत कम नेताओ में देखने को मिलती है | चाहे राफेल रहा हो, नोटबंदी या जीएसटी रहा हो ,बिना इसके विपरीत प्रभावों पर विचार किये इन्हे अमल में लाया गया | स्वच्छ भारत अभियान यूपीए के शासनकाल में भी चलता था ,निशुल्क गैस कनेक्शन उनके शासनकाल में भी दिए जाते थे लेकिन जिस दृढ़ता के साथ मोदी ने इन योजनाओ को लागू किया ये सिर्फ मोदी ही कर सकते थे | ऐसी और भी कई योजनाए है जो पूर्ववर्ती सरकार की होने के बावजूद केवल मोदी के शासनकाल में ही अपने अंजाम और परिणाम तक पहुँच पायी | मोदी के साथ 2002 जुड़ा था तो साथ में गुजरात का विकास मोडल भी जुड़ा हुआ था ,ऐसे में जब मोदी है तो मुमकिन है के साथ जब ये सवाल मतदाताओं के सामने उठाया गया कि मोदी नहीं तो कौन ? तो इसका जवाब न तो मतदाताओं के पास था और न ही विरोधियो के पास | बेशक मोदी सरकार का पिछले शासनकाल बहुत बड़ी उपलब्धियों से भरा हुआ नहीं रहा लेकिन बाजार का एक जनरल ट्रेंड है कि किसी कंपनी के परिणाम अच्छे नहीं होने के बावजूद यदि कम्पनी के टॉप मैनेजमेंट की कमेंट्री सकारात्मक हो तो बाजार उसपर विश्वास जताता है ,और मोदी नहीं तो कौन ? के जवाब में सामने किसी विकल्प को नहीं पाकर मतदाताओं ने मोदी में ही विश्वास जताया ,और इसी विश्वास को और पुख्ता करने के लिए भाजपा द्वारा अपना चुनावी केम्पेन इसी पर फोकस रखा गया कि आपका वोट मोदी को जा रहा है ,वस्तुत भाजपा का प्रत्याशी कोई भी रहा हो लेकिन मतदाताओं ने उस चेहरे पर मोदी का चेहरा देखकर ही वोट किया | योजनाओ ,रणनीतियों और मतदाताओं को बूथ पर लाकर (जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है ) अपने पक्ष में मतदान करवाने में कार्यकर्ता ही सबसे अहम रोल अदा करता है और इसकी जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है कि वर्तमान में अनुशासित कार्यकर्ता केवल भाजपा के पास है जो पूरे समर्पण के साथ अपनी पार्टी के लिए काम करते है | गुटबाजी से भाजपा भी अछूती नहीं है लेकिन तमाम आपसी मतभेदों के बावजूद जब बात भाजपा की आती है तो फिर मतभेदों पर पार्टी के प्रति समर्पण की विजय होती है जो भाजपा की विजय में अहम् रोल अदा करती है | पांचवा और अंतिम कारण है कमजोर और असंगठित विपक्ष ,2019 में विपक्षी दलों की स्थिति की तुलना नेहरू के समय के विपक्ष से की जा सकती है ,जिसके चलते नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस एकतरफा जीत दर्ज करती थी | यूपी के उपचुनावों में जीत के बाद बसपा और सपा को ये लगने लगा कि वे अपने दम पर ही भाजपा को पछाड़ देंगे उन्हें कांग्रेस जैसे किसी दल की जरुरत ही कहा है लेकिन वो ये भूल जाते है कि उनका वोट शेयर मुश्किल से 4 -5 प्रतिशत होगा जबकि कांग्रेस देश की दूसरे नंबर की पार्टी है | तीन विधानसभा चुनावो में (इनमे भी राजस्थान और एमपी की जीत डोमिनेटिंग नहीं कही जा सकती ) और इसके पहले कर्णाटक और उत्तर गुजरात की विधानसभाओ में अच्छे प्रदर्शन के बाद कांग्रेस को ये लगने लगा कि हम देश की सबसे पुरानी पार्टी और यदि हम किसी से गठबंधन करेंगे भी तो अपनी ही शर्तो पर करंगे | तो विपक्ष का ये नारा तो रहा कि लोकतंत्र को बचाना है तो मोदी को हराना है लेकिन वे मतदाताओं के सामने ये विकल्प रख पाने में असफल रहे कि मोदी नहीं तो कौन ? मतदाता इस असमंजस में रहा कि गैर भाजपाई दलों में वो वोट करे तो किसे | ऊपर से मायावती ने जिनका 2014 में खाता भी नहीं खुला था ने अपनी दावेदारी ठोक दी ,ढके छिपे शब्दों में ही सही लेकिन राहुल गांधी ने भी अपनी दावेदारी प्रस्तुत की ,तो साथ में ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू भी संभावित दावेदारों में से थे | एक जो महत्वपूर्ण तथ्य है उस पर किसी भी विपक्षी दल ने गौर नहीं किया और वो ये कि 1991 से 2009 तक देश ने गठबंधन की सरकारों को देखा है और भुगता है जिसके बाद देश एक पूर्ण बहुमत की सरकार चाहता है जो गठबंधन के सहयोगियों की ब्लेकमेलिंग से मुक्त होकर शासन चला सके | विपक्ष में ऐसा कोई दल था ही नहीं जो अपने बूते पर सरकार बनाने की चुनौती पेश कर पाता लेकिन इसके बावजूद विपक्ष गलतफहमियों का शिकार रहा और अभिमान में एक संयुक्त मजबूत विपक्ष के रूप में जनता के सामने नहीं आया जिस पर देश विचार कर पाता |
नॉट -ये लेखक के अपने विचार है जिनसे जरुरी नहीं कि आप सहमत हो लेकिन असहमति व्यक्त करने से पहले दूसरे की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का सम्मान करे |
महेंद्र जैन
28 मई 2019
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